
संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद (UNSC) में स्थायी सदस्यता के लिए भारत की दावेदारी का अमेरिका, रूस और ब्रिटेन के बाद अब फ्रांस ने भी खुलकर समर्थन किया है. ऐसे में सवाल उठता है कि जब ये सारे देश यूएनएससी में भारत को शामिल करने को तैयार हैं तो फिर पेच फंसता कहां है?
नई दिल्ली. भारत लंबे समय से संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद (UNSC) में स्थायी सदस्यता की दावेदारी करता रहा है. भारत की इस दावेदारी पर रूस, अमेरिका के बाद अब फ्रांस और ब्रिटेन ने भी बड़ा सपोर्ट मिला है. फ्रांसीसी राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रों और फिर ब्रिटेन के प्रधानमंत्री केअर स्टॉर्मर यूएनएससी में भारत की स्थायी सदस्यता की दावेदारी का समर्थन किया है.
संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में 15 सदस्य होते हैं, जिनमें पांच स्थायी और 10 अस्थायी सदस्य होते हैं. स्थायी सदस्यों में अमेरिका, चीन, फ्रांस, रूस और ब्रिटेन शामिल हैं, जिन्हें वीटो पॉवर मिला हुआ है. यह वीटो उन्हें संयुक्त राष्ट्र का बेहद शक्तिशाली सदस्य बना देता है. यही वजह है कि भारत भी लंबे समय से इस बात पर जोर देता रहा है कि वह सुरक्षा परिषद में बतौर स्थायी सदस्य जगह पाने का सही हकदार है.
भारत की सदस्यता पर क्या बोला ब्रिटेन?
न्यूयॉर्क में संयुक्त राष्ट्र महासभा (UNGA) को संबोधित करते हुए स्टॉर्मर ने कहा, ‘सुरक्षा परिषद को बदलना होगा ताकि वह एक ज्यादा प्रतिनिधित्व वाली बॉडी बन सके, जो राजनीति से लकवाग्रस्त नहीं, बल्कि एक्शन के लिए तैयार रहे…’ उन्होंने कहा कि यूएनएससी में भारत, जापान, ब्राजील और जर्मनी को स्थायी सदस्य बनाया जाना चाहिए. इसके साथ ही निर्वाचित सदस्यों के लिए और अधिक सीटें बढ़ानी चाहिए.
मैक्रों ने भी की भारत को स्थायी सदस्य बनाने की वकालत
इससे पहले, फ्रांस के राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रों ने भी बुधवार को यूएनजीए में दिए अपने भाषण में सुरक्षा परिषद में भारत की स्थायी सदस्यता का समर्थन किया था. उन्होंने कहा, ‘हमारे पास एक सुरक्षा परिषद है, जो अवरुद्ध है… आइए यूएन को और ज्यादा कुशल बनाएं. हमें इसे और अधिक प्रतिनिधित्व वाला बनाना होगा.’ मैक्रों ने इसके साथ ही कहा, ‘फ्रांस सुरक्षा परिषद के विस्तार के पक्ष में है. जर्मनी, जापान, भारत और ब्राजील को स्थायी सदस्य होना चाहिए, साथ ही दो देश जिन्हें अफ्रीका अपना प्रतिनिधित्व करने के लिए चुनेगा.’
उधर भूटान और पुर्तगाल ने भी शुक्रवार को संयुक्त राष्ट्र महासभा को संबोधित करते हुए सुरक्षा परिषद में भारत की स्थायी सदस्यता की वकालत की. भूटान के प्रधानमंत्री शेरिंग तोबगे ने कहा कि भारत अपनी महत्वपूर्ण आर्थिक वृद्धि और ग्लोबल साउथ के नेतृत्व के साथ संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में एक स्थायी सीट का हकदार है.
भूटान और पुर्तगाल ने भी किया सपोर्ट
शुक्रवार को यूएनजीए के 79वें सत्र में अपने संबोधन में तोबगे ने कहा, ‘संयुक्त राष्ट्र को आज की दुनिया की वास्तविकताओं को पूरा करने के लिए विकसित होना चाहिए. सुरक्षा परिषद, जैसा कि यह है, अतीत का अवशेष है. हमें एक ऐसी परिषद की आवश्यकता है जो वर्तमान भू-राजनीतिक, आर्थिक परिदृश्य और सामाजिक वास्तविकताओं को प्रतिबिंबित करे.’
तोबगे से पहले पुर्तगाल के प्रधानमंत्री लुइस मोंटेनेग्रो ने भी भारत की यूएनएससी में स्थायी सीट का समर्थन किया. उन्होंने कहा, ‘हम वैश्विक शासन प्रणाली के सुधार के साथ आगे बढ़ना चाहते हैं, ताकि अधिक प्रतिनिधित्व, पारदर्शिता, न्याय और सहयोग की गारंटी हो,” उन्होंने सुरक्षा परिषद में सुधार का आह्वान करते हुए इसे और अधिक प्रतिनिधि, चुस्त और कार्यात्मक बनाया. उन्होंने कहा, ‘पुर्तगाल अफ्रीकी साझा रुख और ब्राजील तथा भारत की स्थायी सदस्य बनने की आकांक्षाओं का समर्थन करता है.’
अमेरिका और रूस भी करते रहे सपोर्ट
अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन ने भी यूएनएससी का विस्तार करते हुए इसमें भारत की स्थाई सदस्यता देने का आह्वान किया था. वहीं रूस तो भारत की आजादी के बाद से ही संयुक्त सुरक्षा परिषद में इसके स्थायी प्रतिनिधित्व का पक्षधर रहा है. ऐसे में रूस, अमेरिका के बाद अब फ्रांस और ब्रिटेन के सपोर्ट में आने के बाद सवाल उठता है कि आखिर भारत की स्थायी सदस्यता में पेच कहां फंस रहा है?
चीन बार-बार अड़ाता है अड़ंगा
इस सवाल का जवाब देते हुए राजनीतिक विश्लेषक अरविंद जयतिलक मानते हैं कि भारत के इस सवाल का जवाब चीन और अमेरिका हैं. वह कहते हैं, ‘चीन भले ही अब साउथ चाइना सी और हिंद-प्रशांत क्षेत्र में अपने दबदबे के लिए भारत को खतरा मानता हो, लेकिन भारत की इस समस्या के लिए बहुत हद तक अमेरिका भी जिम्मेदार है. वर्तमान में चीन भारत को वीटो मिलने से रोकने के लिए सुरक्षा परिषद में वीटो कर देता है. या जब उसके पास कोई जवाब नहीं बचता तो वह पाकिस्तान को भी वीटो देने का अपना राग अलापने लगता है. इस मामले को चीन के एंगल से अलग भी समझना जरूरी है.’
पहले अमेरिका था खिलाफ
वह आगे कहते हैं कि चीन तो भारत का धुर विरोधी है ही, लेकिन अमेरिका अभी जो यह भारत को सुरक्षा परिषद में स्थायी सीट देने के लिए राजी हुआ है, यह स्थिति हमेशा नहीं थी. भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू का सोशलिस्ट लोकतंत्र होने की वजह से हम तत्कालीन सोवियत संघ के ज्यादा नजदीक थे, जिसकी वजह से अमेरिका हमारे खिलाफ था. जैसा हम 1971 के भारत-पाक युद्ध में भी देख चुके हैं.
यही वजह है कि अमेरिका हर जगह भारत का न सिर्फ विरोध करता था, बल्कि भारत के खिलाफ अपने सारे सहयोगी देशों को भी इस्तेमाल करता था. यही वजह है कि अमेरिका का बनाया हुआ भारत विरोधी माहौल आज भी है. इसी क्रम में ब्रिटेन भी भारत की स्थायी सीट का विरोध करता था. हालांकि, अब देखना यह होगा कि जब अमेरिका हमारे पक्ष में आ गया है, तो चीन और उसके पाकिस्तान जैसे सहयोगी भारत के बढ़ते वर्चस्व को कब तक रोक पाएंगे. (एजेंसी इनपुट के साथ)